Sunday, February 24, 2013

बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना... part-2

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अब कन्या स्कूल की लडकिया नहीं देख पाते
अब न हम रूठते है न दोस्त है हमे मनाते
अब बैटिंग का हम इंतज़ार नहीं करते है
क्रिकेट खेले भी हो गया है एक ज़माना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


अब उनकी गलियों के चक्कर नहीं लगाते
अब तो टीचर्स भी हमे डांट नहीं लगाते
अब कभी सिरदर्द का बहाना भी नहीं बनाते
अब बड़े हुए है तो जैसे बदल गया है ये ज़माना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


अब बोट क्लब में पहले जैसा “वो” मज़ा नहीं आता
वन-विहार और मच्छली घर भी मन को नहीं भाता
अब सवाल हल करने पर “वो” ख़ुशी नहीं होती है
अब तो डर भी न रहा कोई, भूल गए रट्टा भी लगाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना

अब कोई उठक-बैठक नहीं लगवाता
अब कोई हमारे पेरेंट्स को नहीं बुलवाता
अब कोई इम्पोर्टेन्ट क्वेश्चन भी नहीं बताता
अब अपनी मर्जी है, पढ़ना है या भूल जाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना

अब कोई एक्स्ट्रा क्लास, कोई इवनिंग क्लास नहीं होती है..
अब BHEL की गलियां भी जैसे सूनी सूनी लगती है
अब हम बेर और अमरुद चुरा कर नहीं खाते है
भूल गए अब हम आम भी चुराकर खाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


अब “कविता” के समोसे में वो बात नहीं नहीं
“मिलन” के पास भी वो पहले जैसी “चाट” नहीं
पिपलानी का मार्किट नहीं, बरखेड़ा की हाट नहीं
कुछ सहमा सहमा सा लगता है हर अपना-बेगाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


अब माता मंदिर के चबूतरे भी सूने सूने से लगते है
घंटो गप्पे लड़ते थे कभी, अब मिलने तक को तरसते है
बुढ़िया के इंतकाल के बाद अब सब सूना सा लगता है
ज़माना हुए उसका हमें देखकर बडबडाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


वो बूढी अम्मा हमपर अक्सर बरसती थी
हर रोज़ हमे खेलने से मन किया करती थी
पर कभी कभी हमे अपना खाना भी खिलाती थी
उनके हाथो बनी चने की भाजी अब मुश्किल है मिल पाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना
खुली आँखों के ख्वाब की तो बात छोडो यारो,
अब तो बंद आँखों में भी ख्वाब नहीं आता,
मन में एक अजीब सी बेचैनी होती है
मुश्किल है किसी को समझा पाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना

वो कागज़ की नाव ही सही थी हमारे लिए,
बड़े हो गए तब जाकर ये सच्चाई है जाना
निश्छल प्रेम का तो अब मतलब भी याद नहीं
कितना पावन था वो खूबसूरत ज़माना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना




क्या जमाना था जब कमला नेहरु पार्क में जाते थे देखने नज़ारे
नज़ारे तो अब भी देखते है, बस नजरिया बदल गया है





बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना... part-1


                  

वो कन्या स्कूल की दीवार, छुट्टी होने का इंतज़ार
वो दोस्तो से तकरार, फिर रूठ जाने वाला प्यार
वो क्रिकेट का खेल, वो बैटिंग का इंतज़ार
वो बैटिंग न मिलने पर रूठ कर चले जाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


अब हजारो रुपये पाकर भी खुश न हो पाते
तब बीस रुपये में खुद को राजा मान बैठते
वो किसी बात की परवाह ना करना
किसी बहाने से उसकी गलियों के चक्कर लगाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


वो टीचर्स की फटकार, उसमे छुपा हुआ प्यार
परीक्षा में दोस्तों से ज्यादा मार्क्स की दरकार
स्कूल जाते ही छुट्टी होने का इंतज़ार
अक्सर बनाना सिरदर्द का वो बहाने बनाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना

वो बोट क्लब की मस्ती वो झील का पानी
वो नीला फलक, वो वन विहार जाने की ललक,
वो मच्छ्लीघर की मच्छ्लिया, वो M.P. नगर की लड़किया
खुली आँखों से ख्वाब देखकर बरबस ही खुश हो जाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


वो हिस्ट्री की मिस्ट्री, वो फिजिक्स का रिस्क
वो जियोग्राफी का डर अब भी याद है
वो साइंस के रिएक्शन, वो इंग्लिश के lessons,
रोज़ रट्टा लगाना और बारबार भूल जाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


वो हिंदी की कक्षा में पिटाई का डर
वो संस्कृत की सूक्तिया भूल जाने का असर
वो मैथ्स के सवाल बार बार दोहराना
सवाल बना कर कुछ यूँ खुश हो जाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना

वो उठक-बैठक लगाने में नानी याद आ जाती थी
नोटबुक बनने के लिए वो जाने क्या क्या सजा दी जाती थी

नोटबुक न होने पर टीचर्स का पेरेंट्स को बुलवाना
पेरेंट्स के डर से पड़ोस के भैया को ले जाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


वो एक्स्ट्रा क्लास की मस्ती,
वो इवनिंग क्लास का खुमार
वो कल्पना मैडम के बताये इम्पोर्टेन्ट क्वेश्चन
उन क्वेश्चन्स में से एक भी परीक्षा में ना आना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


वो BHEL की गलियों में रोज़ रोज़ जाना
कभी बेर कभी अमरुद तो कभी आम चुराकर खाना
अक्सर “घर में” होमवर्क भूल जाना
सब्जेक्ट टीचर से पिटाई का डर सताना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


वो “कविता” के समोसे, वो “मिलन” की चाट
वो पिपलानी का मार्किट, वो बरखेड़ा का हाट
वो पठानी का मंदिर, वह बुढ़िया की खाट
घंटो बैठ कर दोस्तों से यूँही गप्पे लडाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना


वो इन्द्रपुरी के “यादव” की मसालेदार चाय
वो हर बात में कहना “ I am a Complan boy”
वो हर बात पर बिना सोचे-समझे शर्त लगाना,
वो पोहा-जलेबी के लिए मन का अक्सर मचल जाना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना