भारत सरकार ने एक बार फिर
वो कर दिखाया जिसमे उसे महारत हासिल है – प्रतिबन्ध. BAN. बैन पहले भी लगते रहे
है, और यक़ीनन आगे भी लगते रहेंगे. प्रतिबन्ध हमारे समाजिक विकास का वाहक बन चूका
है. अब शायद हम उस स्वर्ण-युग से गुजर रहे है जहाँ अगर दो-तीन हफ्तों में कोई बैन
नहीं लगता तो शक होने लगता है की कहीं ‘डेमोक्रेसी’ नाम के खिलौने की बैट्री
डिस्चार्ज तो नहीं हो गया? वैसे डेमोक्रेसी और बैन का चोली-दामन का साथ है. जब तक
बैन न लगे हमे पता ही नहीं चलता की वो वस्तु, या विचार, या अभिव्यक्ति, जिसे
प्रतिबंधित किया जा रहा है, वो कभी अस्तित्व में थे भी या नहीं? वो अंग्रेजी में
क्या कहते है... बैन इज द ड्राइविंग फ़ोर्स ऑफ़ डेमोक्रेसी.
अभी गो-मांस पर लगे बैन
के बारे में तमाम वाद-विवाद-परिवाद-धर्मवाद-भाग्वावाद-टोपीवाद-मुरादाबाद-अहमदाबाद
के बारे में पढ़-सुन ही रहा था की भारत-सरकार ने टाइम-पास का एक और झुनझुना पकड़ा
दिया. निर्भया रेप-कांड पर बने डाक्यूमेंट्री को प्रतिबंधित कर के. यकिन मानिये
दोस्तों, इस डाक्यूमेंट्री के बारे में कुछ छः महीने पहले खबर पढ़ी थी की ऐसा कुछ
प्रयास हो रहा है. फेसबुक पर कई क्रान्तिकारी पोस्ट भी चेपे थे लेकिन उसके एक
हफ्ते बाद ही सब कपूर की तरह हवा हो गया. और हो भी क्यूँ ना, हम कोई चुनाव थोड़ी लड़
रहे है जो मुद्दों की कमी का एहसास हो? ये तो भला हो भारत-सरकार का जिसने एक बार
फिर याद दिला दिया की हम ने इस मुद्दे पर भी क्रांति का भी बीड़ा उठाया था. वैसे
जिस देश में तीस करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हो, बीस करोड़ से ज्यादा शायद एक
वक़्त का भोजन भी नहीं जुटा पाते हो, जहाँ चालीस प्रतिशत सांसद-विधायक आपराधिक छवि
के हो, वहां की सरकार अगर इतनी प्रयत्नशील है की किसी फिल्म, या कार्टून या किताब
को प्रतिबंधित कर दे तो यकीन मानिये, हमे फिर से विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक
सकता. विज्ञान भी नहीं.
एक बात और, प्रतिबन्ध का
मतलब होता है सरकारी खर्चे पर प्रचार. आजतक ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं सुना जहाँ प्रतिबंधित
वस्तु का इस्तेमाल रुक गया हो. गोया उसकी मांग और बढ़ जाती है. अभी पिछले महीने की
बात है, अहमदाबाद में कुछ मित्र मिले और तय हुआ की दारु से दोस्ती को सींचने की.
अब चूंकि शराब को तौबा कर चूका मैं इस बात से खुश भी था की गुजरात में मदिरा
प्रतिबंधित है तो मुझे दोस्तों में साथ होते हुए भी अकेलेपन का एहसास नहीं होगा.
लेकिन जहाँ चाह होती है, राह निकल ही आती है. पांच सौ रुपये की बोतल बारह सौ में
घर पहुँच गया. दिलवाया भी लोकल MLA के चमचे ने. इसीलिए मेरा मानना है की प्रतिबन्ध
का हमारे जीवन में बहुमूल्य योगदान है. बल्कि मैं तो कहता हूँ की बैन एक
अखिल-भारतीय प्रयास है उन विचारो को हमारे जेहन में लाने का जो शायद कभी आते ही
नहीं. उदहारण के तौर पर, सलमान रुश्दी के नाम से मेरा परिचय तब हुआ जब फतवा और बैन
जारी हुआ. MF हुसैन साहब भी शायद कभी कभी मेरी बातों का हिस्सा न होते. और ऐसे
हजारो ख्याल, या नाम, या कार्टून, किताबें, फिल्में, गाने, धारावाहिक वगैरह शायद
कही गुमनामी के अंधेरों में रौशनी के एक किरण की तलाश में घुट-घुट कर मर जाते
लेकिन उनको वो सब नसीब नहीं होता जो प्रतिबंधित होने के बाद मिला.
हम सरकार चुनकर भेजते है
की वो हमारे लिए नीतियाँ बनाये, उनका अनुपालन करें और देश को एक ऐसी मजबूत
अर्थव्यवस्था बनाये जहाँ हमे ये कहने में कोई शर्म न हो ही हम एक मजबूत
अर्थव्यवस्था है. जिस देश में एक-तिहाई आबादी के भोजन की व्यवस्था न हो वो अगर
अपनी अर्थव्यवस्था कुछ दो-चार पूंजीपतियों के सहारे आगे बढ़ाना चाहे तो इसमें भी
कही न कही देश-हित ही निहित होगा. लेकिन हम बात कर रहे थे प्रतिबन्ध की. मुद्दों
से भटकना मेरी पुराणी आदत है, माफ़ी चाहूँगा. खैर... कहीं पढ़ा था की जहाँ से इंसान
के सोचने की हद्द समाप्त होती है वहाँ से दोराहा शुरू होता है. दोराहा यानी
दुविधा... क्या करें क्या न करें ये कैसी मुश्किल हाय.... दोराहा-जहाँ एक तरफ तो हमे एक कठिन रास्ता मिलता
है जिसपर चलने के लिए असीम धैर्य और दूरदृष्टि की जरूरत होती है. आशावाद तो खैर
प्राथमिक जरुरत है हीं. दूसरा रास्ता होता है आसान रास्ता जिसके लिए किसी आपको ज्यादा
सोचने-समझने की जरुरत नहीं होती है. बस सिक्का निकालिए, टॉस करिए और पारी की
शुरुआत कीजिये. मजेदार बात ये है की दोनों ही सूरत में परिणाम दूरगामी होंगे.
बहुत दिनों बाद कुछ लिखने
का प्रयास किया है... अगर उमंग में कुछ ज्यादा हो गया तो कहीं मेरा ब्लॉग भी
प्रतिबंधित न जाये. आखिर ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ जैसी टुच्ची चीजों के लिए हम ‘देश-हित’
को नुकसान थोड़ी होने देंगे.