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अब कन्या स्कूल की लडकिया
नहीं देख पाते
अब न हम रूठते है न दोस्त
है हमे मनाते
अब बैटिंग का हम इंतज़ार
नहीं करते है
क्रिकेट खेले भी हो गया है
एक ज़माना
बहुत याद आता है वो बचपन सुहाना
अब उनकी गलियों के चक्कर
नहीं लगाते
अब तो टीचर्स भी हमे डांट
नहीं लगाते
अब कभी सिरदर्द का बहाना भी
नहीं बनाते
अब बड़े हुए है तो जैसे बदल
गया है ये ज़माना
बहुत याद आता है वो बचपन
सुहाना
अब बोट क्लब में पहले जैसा
“वो” मज़ा नहीं आता
वन-विहार और मच्छली घर भी
मन को नहीं भाता
अब सवाल हल करने पर “वो”
ख़ुशी नहीं होती है
अब तो डर भी न रहा कोई, भूल
गए रट्टा भी लगाना
बहुत याद आता है वो बचपन
सुहाना
अब कोई उठक-बैठक नहीं
लगवाता
अब कोई हमारे पेरेंट्स को
नहीं बुलवाता
अब कोई इम्पोर्टेन्ट
क्वेश्चन भी नहीं बताता
अब अपनी मर्जी है, पढ़ना है
या भूल जाना
बहुत याद आता है वो बचपन
सुहाना
अब कोई एक्स्ट्रा क्लास,
कोई इवनिंग क्लास नहीं होती है..
अब BHEL की गलियां भी जैसे
सूनी सूनी लगती है
अब हम बेर और अमरुद चुरा कर
नहीं खाते है
भूल गए अब हम आम भी चुराकर
खाना
बहुत याद आता है वो बचपन
सुहाना
अब “कविता” के समोसे में वो
बात नहीं नहीं
“मिलन” के पास भी वो पहले
जैसी “चाट” नहीं
पिपलानी का मार्किट नहीं,
बरखेड़ा की हाट नहीं
कुछ सहमा सहमा सा लगता है
हर अपना-बेगाना
बहुत याद आता है वो बचपन
सुहाना
अब माता मंदिर के चबूतरे भी
सूने सूने से लगते है
घंटो गप्पे लड़ते थे कभी, अब
मिलने तक को तरसते है
बुढ़िया के इंतकाल के बाद अब
सब सूना सा लगता है
ज़माना हुए उसका हमें देखकर
बडबडाना
बहुत याद आता है वो बचपन
सुहाना
वो बूढी अम्मा हमपर अक्सर
बरसती थी
हर रोज़ हमे खेलने से मन
किया करती थी
पर कभी कभी हमे अपना खाना
भी खिलाती थी
उनके हाथो बनी चने की भाजी
अब मुश्किल है मिल पाना
बहुत याद आता है वो बचपन
सुहाना
खुली आँखों के ख्वाब की तो
बात छोडो यारो,
अब तो बंद आँखों में भी
ख्वाब नहीं आता,
मन में एक अजीब सी बेचैनी
होती है
मुश्किल है किसी को समझा
पाना
बहुत याद आता है वो बचपन
सुहाना
वो कागज़ की नाव ही सही थी
हमारे लिए,
बड़े हो गए तब जाकर ये
सच्चाई है जाना
निश्छल प्रेम का तो अब मतलब
भी याद नहीं
कितना पावन था वो खूबसूरत
ज़माना
बहुत याद आता है वो बचपन
सुहाना
क्या जमाना था जब कमला
नेहरु पार्क में जाते थे देखने नज़ारे