बिहार में चूनावी बिगुल बज गया हैं. और इसी के साथ शुरू हो गया है गैर-बिहारीयों का बिहारियों से ये पूछना कि इस बार किसका चांस लग रहा है? और तिसपर बिहारी ऐसे फूल जा रहे है जैसे बिहार की स्थापना इन्होने ही की हो. लौंडे दिल्ली से आनेवाली ट्रेन से उतरकर अपने गाँव पहुँने में तीन बार रास्ता भटक जाते हैं लेकिन बिहार के कौन से विधानसभा सीट से कौन आ रहा, इनके पास पूरी एक्सेल शीट तैयार मिलेगी. फलां सीट ने ढिमका नेता की जीत वो इतनी सरलता और सहजता से कह जातें है कि एकबारगी चुनाव आयोग भी सोच में पड जाता है कि चुनाव कराएँ या सीधा नतीजे घोषित कर दें? इनकी भविष्यवाणी में इतना कॉन्फिडेंस होता है जितना उस प्रत्यासी को भी नही होता जिसने चुनाव प्रबंधन में करोडो रूपये खर्च कर दिया हो.
गैर-बिहारी लोग बिहारियों से ये सवाल इस मासूमियत से करते है जैसे बिहारी होने का मतलब बिहार होना हो. और हम बिहारी लौंडे भी भोकाल देने में मोदी जी से कतई कम नही हैं. लेकिन इससे फर्क नही पडता है. फर्क पडना भी नही चाहिए और मुझे भी नही पडता अगर मुझसे ये सवाल बार बार नही पूछा जाता. मैं इस सवाल के जवाब देने से कतराता हूँ. इसकी वजह ये है कि देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल चल रहा है, मेरा जवाब गलत साबित होने पर कहीं मुझसे नैतिकता के आधार पर इस्तीफा नही मांग लें सब. सब के अंदर एक रविशंकर प्रसाद होता है भाई.
बहरहाल, कहने का तात्पर्य ये है कि ये सवाल पूछना बंद किजिए की इसबार कौन कहाँ से जीत रहा है. इसका सटीक उत्तर किसी के पास नही है. और अगर होता भी तो उससे क्या फर्क पड जाता? जवाब तो आप वही सुनना चाहते है ना जो आप पहले से मान चुके है. लेकिन मै यहाँ एक बात साफ कर देना चाहता हूँ कि बिहार की राजनीती को समझना बडी टेढी खीर है साहब. यहाँ कौन सा उँट कब किस करवट बैठ जाए ये आप ठीक ठीक नही बता सकतें. आप क्या, ये बात तो उस ऊँट को भी पता नही होगी कि अगले पल वो किस करवट बैठेगा. अजी करवट छोडिये, कई बार तो आप पूरे समय जिसे ऊँट समझते ऱहें हो, वही गदहा निकल जाता है. खैर, कहने का पुनः तात्पर्य ये है कि बिहार की राजनीती को आखिरी बार अगर किसी ने ठीक-ठीक समझा है तो वो आज से तेईस सौ साल आचार्य कौटिल्य थे. और वो भी इसलिए क्योंकि गुरूवर नें इस राजनीति शास्त्र विधा का इजाद किया था.
बिहार में चुनाव का इतिहास रहा है कि जीत किसी की भी हुई हो, हार हमेशा बिहार की ही होती है. यहाँ आपकी जाति तय करती है कि आप कितने इमानदार हैं. आपका धर्म इस बात का मानक होता है कि आप कितना विकास करना चाहते है. और इस बिना पर मैं ये तो नही बता सकता हूँ कि बिहार में कौन जीतेगा, लेकिन जिस तरह का माहौल है, ये तय है कि बिहार एक और हार की ओर अग्रसर है.
आखिर में यही कहना चाहूँगा कि क्लोरमिंट खाइये, और दोबारा मत पूछिये. चूनाव है, इसका मजा लिजिए. जोक बनाइये, जोक का हिस्सा बनिए, लेकिन जोक मत बनिये. लोकतंत्र का मजा जोकतंत्र में ही है. बाकि जो है सो हइये है.
गैर-बिहारी लोग बिहारियों से ये सवाल इस मासूमियत से करते है जैसे बिहारी होने का मतलब बिहार होना हो. और हम बिहारी लौंडे भी भोकाल देने में मोदी जी से कतई कम नही हैं. लेकिन इससे फर्क नही पडता है. फर्क पडना भी नही चाहिए और मुझे भी नही पडता अगर मुझसे ये सवाल बार बार नही पूछा जाता. मैं इस सवाल के जवाब देने से कतराता हूँ. इसकी वजह ये है कि देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल चल रहा है, मेरा जवाब गलत साबित होने पर कहीं मुझसे नैतिकता के आधार पर इस्तीफा नही मांग लें सब. सब के अंदर एक रविशंकर प्रसाद होता है भाई.
बहरहाल, कहने का तात्पर्य ये है कि ये सवाल पूछना बंद किजिए की इसबार कौन कहाँ से जीत रहा है. इसका सटीक उत्तर किसी के पास नही है. और अगर होता भी तो उससे क्या फर्क पड जाता? जवाब तो आप वही सुनना चाहते है ना जो आप पहले से मान चुके है. लेकिन मै यहाँ एक बात साफ कर देना चाहता हूँ कि बिहार की राजनीती को समझना बडी टेढी खीर है साहब. यहाँ कौन सा उँट कब किस करवट बैठ जाए ये आप ठीक ठीक नही बता सकतें. आप क्या, ये बात तो उस ऊँट को भी पता नही होगी कि अगले पल वो किस करवट बैठेगा. अजी करवट छोडिये, कई बार तो आप पूरे समय जिसे ऊँट समझते ऱहें हो, वही गदहा निकल जाता है. खैर, कहने का पुनः तात्पर्य ये है कि बिहार की राजनीती को आखिरी बार अगर किसी ने ठीक-ठीक समझा है तो वो आज से तेईस सौ साल आचार्य कौटिल्य थे. और वो भी इसलिए क्योंकि गुरूवर नें इस राजनीति शास्त्र विधा का इजाद किया था.
बिहार में चुनाव का इतिहास रहा है कि जीत किसी की भी हुई हो, हार हमेशा बिहार की ही होती है. यहाँ आपकी जाति तय करती है कि आप कितने इमानदार हैं. आपका धर्म इस बात का मानक होता है कि आप कितना विकास करना चाहते है. और इस बिना पर मैं ये तो नही बता सकता हूँ कि बिहार में कौन जीतेगा, लेकिन जिस तरह का माहौल है, ये तय है कि बिहार एक और हार की ओर अग्रसर है.
आखिर में यही कहना चाहूँगा कि क्लोरमिंट खाइये, और दोबारा मत पूछिये. चूनाव है, इसका मजा लिजिए. जोक बनाइये, जोक का हिस्सा बनिए, लेकिन जोक मत बनिये. लोकतंत्र का मजा जोकतंत्र में ही है. बाकि जो है सो हइये है.
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