खिडकी से छन कर आती,
मधम-मधम सी ये धूप,
रोज सुबह मुझे जगा जाती है,
माँ, तेरी याद दिला जाती है,
जब तू रोज जगाती थी बडे प्यार से।
चुपके से माथे को चूम कर,
बालो मे उंगलिया फेरती,
धीमे से तू मेरा नाम पुकारती,
ये जानते हुए कि फिर सो जाऊंगा,
थोडी देर और सोने का बहाना करके,
लेकिन तू कभी गुस्सा नही होती थी,
रोज समझाती थी मुझे बडे प्यार से।
अब कोई नही है जगाने वाला,
लेकिन फिर भी रोज जाग जाते है,
अलार्म बन्द करना तो रोज चाहते है,
पर मजबूरी है माँ, कर नही पाते है,
लेट होने पर office मे डांट पडती है,
Boss नही समझाता कभी हमे प्यार से,
परेशान हो गया है, expectations से,
Target achieve करने की मार से।
एक बार फिर जाना चाहता हूँ माँ,
बचपन के गलियारों मे, दोस्तों मे, यारों में,
जहाँ कोई peer pressure ना हो,
ना हो अंधी दौड, आगे निकल जाने की,
फिर वापस चाहता हूँ माँ, वो बचपन की नींद,
तू फिर जगाये रोज, उसी तरह प्यार से,
तब तक काट रहा हूं दिन, 'अच्छे दिन' के इंतजार मे।
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