रात भर बैठी,
मुन्ना के सिरहाने,
अकेले मे माँ कुछ सोचती रही,
आसूओं से पल्लू सिंचती रही,
गुस्से मे दांत भीचती रही,
पर गुस्से से चूल्हे मे आंच नही जलती,
जलता है तो पेट मे भूख की आग,
मुन्ना के रोने की,
भूखे पेट सोने की,
कातर आंखों की,
मासूम सवालो की,
बेबस सिसकारियों की आग,
आज के मजबूरियों को बहला-फसलाने की,
कल के चिन्ता मे आज गंवाने की आग।
मुन्ना अक्सर सवाल करता है,
कि क्यों उसके हिस्से है सिर्फ भूख,
जबकि साथ के सारे बच्चे खुश है,
अपने-अपने घरों में।
कैसे बताये माँ उसको,
कि पिता की मौत के बाद,
घर मे पैसा नही है,
कैसे समझाये उसे,
कि वो औरो जैसा नही है।
क्या बतलाये कि बाबू घूस मांगता है,
पेंशन पास करने को,
जबकि यहाँ तो रोटी नही है,
पापी पेट भरने को।
आज फिर मुन्ना सो जायेगा,
उन्हीं सवालो के साथ,
फिर उठेगा, फिर पूछेगा,
फिर वही जवाब मिलेगा,
मुन्ना का बचपन भी अब कैसे गुजरेगा,
माँ के सीने को छलनी करते सवालो के आग।
आग, जो रोज जलाती है,
यक्ष-प्रश्नों सी आकर रोज,
सामने खडी हो जाती है,
उसे नही मालूम कि क्या हो रहा है देश मे,
उसे मालूम है तो इतना,
कि थोडी देर में मुन्ना जागेगा,
फिर रोटी मांगेगा,
फिर वही दिलासा,
फिर वही झूठ,
फिर झूठी आशा,
कहते है समय सब बदल देता है,
उसे भी उम्मीद है कि बदलेगा सब एक दिन,
मगर तब तक ये सत्य अटल है,
कुछ सवाल घोर प्रबल है।
जिन्दा रहने की जद्दोजहद मे,
जलाये जा रही हैं, मजबूरियों की आग।f
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